Monday 26 March 2012

डायलाग - मार्च, 2012


अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर  
४/६, सिरीफोर्ट इनस्ट. एरिया, दिल्ली.

" डायलाग  



  
अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के सौजन्य से माह के आखिरी शनिवार को कविता को समर्पित कार्यक्रम " डायलाग " का आयोजन किया जाता है!  अकादमी की अध्यक्ष  हैं वरिष्ठ लेखिका अजीत कौर!  उल्लेखनीय है इस बार डायलाग में  हिंदी की प्रमुख कवयित्रियों का काव्य पाठ होने जा रहा है!  कार्यक्रम की रूप- रेखा इस प्रकार है :

स्थान  : द म्यूजियम हॉल, अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर, 4/6 , सिरीफोर्ट इनस्ट. एरिया, (नजदीकी मेट्रो स्टेशन ग्रीन पार्क से वाकिंग डिस्टेंस), नयी दिल्ली.


दिनांक  : 31st मार्च 2012 

टाइम    : 5 :00 शाम से 8 :00 बजे तक 


कार्यक्रम : हिंदी की प्रमुख कवयित्रियों द्वारा काव्य-पाठ



सीमा तोमर, सुधा उपाध्याय, लीना मल्होत्रा राव, अंजू शर्मा, वंदना शर्मा, ओमलता, अपर्णा मनोज और अनामिका  



कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी जी और सञ्चालन कर रही हैं सुप्रसिद्ध कवयित्री सुश्री सुमन केशरी, कार्यक्रम के संयोजक हैं मिथिलेश श्रीवास्तव और धन्यवाद ज्ञापन पढने वाले हैं देशबंधु कॉलेज के प्राध्यापक कवि मनोज कुमार सिंह!



सभी कवियों का परिचय इस प्रकार है :




अनामिका



arv&Writer 



अनामिका जी निबंध लिखती हैं, अख़बारों और पत्रिकाओं में स्तम्भ लिखती हैं, कहानियां और उपन्यास रचती हैं, कविताओं और उपन्यासों का अनुवाद-संपादन करती हैं और intelectual के रूप में व्याख्यान देने से लेकर नारीवादी पब्लिक स्फियर में सक्रिय रहने तक वे और भी बहुत कुछ करती हैं, पर सबसे पहले और सबसे बाद में वे एक कवि  हैं!  बिहार में जन्मी अंग्रेजी साहित्य से पी-एच.डी अनामिका जी राजभाषा परिषद् पुरस्कार (1987 ), भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (1995 ), साहित्यकार सम्मान (1997 ), गिरिजाकुमार माथुर सम्मान (1998), parampara सम्मान (2001) और sahitya setu सम्मान (2004) से विभूषित हो चुकी हैं!  
उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : आलोचना -'पोस्ट एलिएट पोएट्री : a voyage from conflict to isolation ',  'treatment of love and death in post war american women poets ', 
विमर्श पर भी उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं - स्त्रीत्व का मानचित्र, मन मांजने की जरूरत, पानी जो पत्थर पीता है, आदि!   
कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं  दूब-धान,  बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, कविता में औरत !  उनके प्रकाशित कहानी संग्रह का नाम है प्रतिनायक! 
संस्मरण - "एक थो शहर था", 'एक थे शेक्सपियर', 'एक थे चार्ल्स डिकेन्स' 'दस द्वारे का पिंजरा' 
उपन्यास - 'अवांतर कथा' , 
अनुवाद- 'नागमंडल (गिरीश कर्नाड), 'रिल्के की कवितायेँ' 'एफ्रो-इंग्लिश पोएम्स', 'अटलांट के आर-पार' (समकालीन अंग्रेजी कविता), 'कहती हैं औरतें' (विश्व की स्त्रीवादी कवितायेँ) 




अनामिका जी की कुछ कवितायेँ :




स्त्रियाँ  




पढ़ा गया हमको 
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज 
बच्चों की फटी कॉपियों का 
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले! 
देखा गया हमको 
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे 
देखी जाती है कलाई घड़ी 
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद ! 

सुना गया हमको 
यों ही उड़ते मन से 
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने 
सस्ते कैसेटों पर 
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में ! 

भोगा गया हमको 
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह 
एक दिन हमने कहा– 
हम भी इंसान हैं 
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर 
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद 
नौकरी का पहला विज्ञापन। 

देखो तो ऐसे 
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है 
बहुत दूर जलती हुई आग। 

सुनो, हमें अनहद की तरह 
और समझो जैसे समझी जाती है 
नई-नई सीखी हुई भाषा। 

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई 
एक अदृश्य टहनी से 
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें 
चींखती हुई चीं-चीं 
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं– 
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं 
अगरधत्त जंगल लताएं! 
खाती-पीती, सुख से ऊबी 
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही 
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ। 
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’ 
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी) 
बाक़ी कहानी बस कनखी है। 

हे परमपिताओं, 
परमपुरुषों– 
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो! 







पुस्तकालय में झपकी



गर्मी गज़ब है!
चैन से जरा ऊंघ पाने की
इससे ज़्यादा सुरिक्षत, ठंडी, शांत जगह
धरती पर दूसरी नहीं शायद ।


गैलिस की पतलून,
ढीले पैतावे पहने
रोज़ आते हैं जो
नियत समय पर यहां ऊंघने 

वे वृद्ध गोरियो, किंग लियर,
भीष्म पितामह और विदुर वगैरह अपने साग-वाग
लिए-दिए आते हैं
छोटे टिफ़न में। 

टायलेट में जाकर मांजते हैं देर तलक
अपना टिफन बाक्स खाने के बाद।
बहुत देर में चुनते हैं अपने-लायक
मोटे हर्फों वाली पतली किताब,
उत्साह से पढ़ते है पृष्ठ दो-चार
देखते हैं पढ़कर
ठीक बैठा कि नहीं बैठा
चश्मे का नंबर।

वे जिसके बारे में पढ़ते हैं-
वो ही हो जाते हैं अक्सर-
बारी-बारी से अशोक, बुद्ध, अकबर।
मधुबाला, नूतन की चाल-ढाल,
पृथ्वी कपूर और उनकी औलादों के तेवर
ढूंढा करते हैं वे इधर-उधर
और फिर थककर सो जाते हैं कुर्सी पर।

मुंह खोल सोए हुए बूढ़े
दुनिया की प्राचीनतम
पांडुलिपियों से झड़ी
धूल फांकते-फांकते
खुद ही हो जाते हैं जीर्ण-शीर्ण भूजर्पत्र! 

कभी-कभी हवा छेड़ती है इन्हें,
गौरैया उड़ती-फुड़ती
इन पर कर जाती है
नन्हें पंजों से हस्ताक्षर। 

क्या कोई राहुल सांस्कृतायन आएगा
और जिह्वार्ग किए इन्हें लिए जाएगा
तिब्बत की सीमा के पार?




अंजू शर्मा
















अंजू शर्मा दिल्ली विश्वविध्यालय के सत्यवती कॉलेज से वाणिज्य स्नातक हैं! ‘स्त्री मुक्ति’ से जुड़े काव्य लेखन में एक चर्चित नाम हैं!  विभिन्न काव्य-गोष्ठियों में सक्रिय भागेदारी! अनेक पत्रिकाओं व वेब पत्रिकाओं में कविताएं व लेख प्रकाशित!  बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित काव्य संकलन "स्त्री होकर सवाल करती है' में कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं! संप्रति: ‘अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर’ के कार्यक्रम 'डायलॉग' और संस्था 'लिखावट' के आयोजन 'कैंपस में कविता' में बतौर कवि और रिपोर्टर भी जुडी हुई हैं! कविताओं के ब्लॉग 'उड़ान अंतर्मन की" का संपादन करती हैं और कई पत्रिकाओं में साहित्यिक कॉलम भी लिख रही हैं! 


उनकी कुछ कवितायेँ जो वे डायलग  में पढने वाली हैं इस प्रकार हैं: 


गुनहगार


हाँ वह गुनहगार है
क्योंकि सूंघ सकती है उस मिटटी को
जिसमें बहुत गहराई से दफ़न है कई रातें
रातें जो दम तोड़ गयी रौशनी की एक चाह में
नाजायज़ है जो तुम्हारे मुताबिक,
कुफ्र है लांघना सली-गडी मान्यताओं की दहलीज़
क्योंकि धकेल दिया जाता है ऐसे दुस्साहसियों को
फतवों और निर्वासन के खौफनाक रास्तों पर,


वह गुनहगार है
क्योंकि नहीं गिरवी रख पाई अपनी आत्मा
जब बढ़ रहे थे फतवों के नरपिशाच उसकी ओर
जिनकी डोरी थी तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के हाथों में,
औरत जो होती है किसी की बेटीबहनप्रेयसीपत्नी और माँ,
देखती हैं जब खुदको उनकी आँखों से ,
तो सारी शक्लें गडमड हो बदल जाती
हैं महज एक किताब में,


वह गुनहगार है
क्योंकि ठंडा नहीं होता उसका खून
उन तमाम सियाह रातों के बावजूद,
जब भटक रही थीं संवेदनाएं
शरण और ठोकरों की खुली पगडंडियों पर,
वो स्याही जम गयी है उसकी सुर्ख आखों में
जिसे सहेजती है वह जतन से
जानती है कि उसकी नापाक कलम से
निकले हर हर्फ़ को जरूरत है इसकी,


वह गुनहगार है
क्योंकि जानती है कि वे तमाम औरतें
जो ख़ामोशी से सौप देती हैं अपना जिस्म,
अपनी जबान और अपनी आत्मा तक
खतरा नहीं है किसी के लिए
दुकानों और कारखानों में पिसता वह मासूम
बचपन खतरा नहीं है किसी के लिए
हर वो गोलीबारूद और मशीनगनजिसमें छिपी हैं
न जाने कितनी निर्दोष जानें
खतरा नहीं है किसी के लिए


वह गुनहगार है
क्योंकि तलाशती है
एक मजबूत दीवार जिसके साये में सुस्ता सके
उसके लगातार दौड़ते कदम और उसके रखवाले
जिनके लिए जरूरी है चाय की आखिरी घूँट तक
छोड़ दे ढोंग उसकी निगहबानी का,


वह जानती है कि
किसी दिन एक लिबलिबी दबेगी
और सुनाई देगी एक चीखएक धमाका और खून की कुछ बूँदें  गिरेंगी
जिनसे किया जायेगा तिलक इतिहास की पेशानी पर
दुनिया देखेगी कि वो तब भी सफ़ेद नहीं होगा,
उस रात सो जायेंगे चैन की नींद,  इन्साफ के तमगे अपनी छाती
पर सजाये कुछ लोग
कि दुनिया अब सुरक्षित है
और सुरक्षित है  धर्मग्रंथों के तमाम नुस्खे



बाज आओ


घर- बाहरझाड़ू-पोंछाचूल्हा,चौका
कपडेबर्तनपतिरिश्तेबच्चे,
कितने बंधनों में बांधा है तुम्हें
बड़ी बेहया हो फिर भी लिखती हो,
कितनी ही बार चलायी है अवरोधों की कैंची
तुम्हारी जबान पर
पर ये क्यों बदल लेती है नया रूप
तुम्हारा मौन तो तब भी सर्वमान्य था
पर क्यों बदली है ये कलम में
सुनो नहीं चाहिए कोई झाँसी की रानी उन्हें,
और नक्कारखाने में तूती सी बजकर 
क्या साबित करना चाहती हो,
याद करों उन हांथों को जो जिन्दा चुन देते हैं
तुम्हे दीवार में,
 या झोंक दी जाती हो किसी तंदूर में,
कितने जन्म लोगी और कितनी अग्निपरीक्षाएं 
और चाहिए तुम्हे,
हर बार खड़ी हो जाती हो,
झाड़ते हुए चिता की धूल और 
ख़ामोशी से जुट जाती हो संभालनेसजानेबढ़ाने इस 
दुनिया कोऔर लिखने?
क्यों नहीं मार देती इस छटपटाहट को,
देखो कि सब्जी में नमक क्यों कम है,
या बच्चों के होमवर्क पर कितने स्टार मिले हैं,
पढ़ी लिखी हो तो करो बनिए और दूधवाले का हिसाब
या कमाओ कि घर न सही उन सभी चीज़ों के भुगतान की किश्तों में
तुम्हारा बराबर हिस्सा है
जो लगाती है गृहस्वामी के रुतबे में चार चाँद,
सुनो ये घर तुम्हारा हैसजाओ इसे करीने से,
बिछ जाओ रोज़ कालीन की तरह,
बनाओ रोज़ सुंदर बाललाली-पावडर क्या चाहिए तुम्हे,
देखो वो गुडिया कितनी सुंदर हैओर उसका सर हिलता है केवल हाँ में,
छि ! फ़ेंक दो वो कलम और कागज़,
सुनो तुम्हारा छौंक लगाना भर देता है
सारे घर को एक मनभावन सुगंध में,
और तुममें रची मसालों की वो गंध ही तुम्हारी पहचान है
चाहिए तो खरीदो गहने-कपडे और भूल जाओ वो 
रास्ता जो जाता है किताबों की दुकान की ओर,
वर्ना दफन कर दी जाओगी अपने ही खोल में,
उस ओर जाते हर रास्ते में बिछा दिए जायेंगे,
कंकड़कांच ओर नुकीली कीलें 
और झोंक दिए जायेंगे हर कदम पर सैकड़ों अंगारे,
अब तो बाज आओ और सिर्फ छौंक लगाओ ......................



अपर्णा मनोज


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अपर्णा मनोज अहमदाबाद की रहने वाली हैं!  वे हिंदी की चर्चित कवयित्री हैं!  वे हिंदी और अग्रेजी में स्नाकोतर हैं!  अपनी संवेदनशील कविताओं, कहानी और अनुवाद के लिए जानी जाती हैं!  इनकी कवितायेँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं!   इन्हें कत्थक और लोकनृत्य में विशेष    योग्यता हासिल है!  अपर्णा जी ब्लोगिंग  में भी सक्रिय हैं, साथ ही साथ नयी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए प्रसिद्द ब्लॉग "आपका साथ साथ फूलों का" का संपादन भी करती हैं!   


अपर्णा जी के लिए कविता जिजीविषा का पर्याय है, एक जिद है विकट और असहनीय को बूझने और उससे जूझने की,  इनकी कविताओं के विस्तृत आकाश में विविध रंगों के इन्द्रधनुष भी हैं! 




आईये पढ़ें  अपर्णा जी की कुछ कवितायेँ जो वे इस बार  डायलग  में पढने वाली हैं 


स्त्री और मृत्यु 


मृत्यु  एक बार तुम हो जाओ प्रविष्ट मेरी रौशनी की गुफा में 

और मैं तुम्हारी हथेलियों की काली लकीरों में
हो जाओ तुम स्त्री
हो जाओ तुम मेरा दुःख
हो जाओ तुम मेरा सुख
हो जाओ मेरे हाथ
मेरे घने केश
मेरा वस्त्र पहनकर देखो एक बार .
हो जाओ तुम स्त्री का रेशा -रेशा ; स्त्री का  आदि -आदि ..

तुम अपने डैने फंसाकर देखो 

एक बार स्त्री के तूफ़ान में
गिरकर देखो उसके अथाह में .

और जब गिरने लगे आकाश , शरीर से बाहर आने लगें साँसें 

तो उतर आना संभलकर उस पर्वतारोही -सी जिसकी विजय
मात्र सन्नाटा और निर्जन है .

तब ये औरत देगी सीढ़ियाँ ,  तुम्हें पेड़ की वह सुखद टहनी 

देगी तुम्हें नदी का ठंडा पानी
तुम्हारे ठंडे हाथों को बोरसी की गर्माहट
देगी तुम्हें हरेपन की छाया  और यथार्थ के पैरों में चुभे कांटे पर खिला देगी गुलमेहँदी  ..आदि-आदि
 जब तुम बहुत अकेली हो जाओ मौत
सितारों से आंकने लगो अपना राशिफल

तो पास खड़ी होगी स्त्री की देह , उसकी छाती , उसका प्रेम 

उसकी निर्मलता , उसके ज़ख्म
उसके संघर्ष जिनके अवशेष तक पी गईं सभ्यताएँ
और पत्थरों के पास इतनी ताकत नहीं बची कि वे बन सकते शिलालेख
 भोजपत्र तो वैसे भी कमज़ोर थे , प्रशस्तियों के ही काम आये .

पुरुष के पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे  

भाषा भूल जाती थी लिखना
और व्याकरण में उभर आते थे जब-तब कई दोष .

तुम चाहो तो उसका शिशु हो सकती हो मौत .
 

संवादहीनता की जीभ से बाहर 

तुम बनकर देखो औरत का सनातन चेहरा
फंसाकर देखो अपनी नन्हीं उँगलियाँ उसके दूध भरे स्तनों में
लगा लो अपने गुलाबी ओंठ
पीकर देखो मातृत्व का स्त्री होना

यूं मोक्ष के बाहर हो सकती हो और भी बहुत कुछ
 
 आदि -आदि ..

और मेरा तुम्हारे भीतर होना कोई नयी बात नहीं .
 



कौए जा चुके हैं शहर से :: 


मेरे शहर पर उस दिन मंडराने लगे कौए
सूरज की मुंडेर से शहर के हर घर की दीवार पर
बीच की खाली जगह
उड़ते रहे , चीखते रहे कई दिनों तक
जबकि शहर में सन्नाटा था और मुर्दे की तरह लेटी थी साबरमती
चाँद को मैंने कई दिनों तक यज्ञोपवीत धागे में लिपटे देखा और तारे मेरे शहर में करते रहे
मृत्यु के बाद का शान्तिपाठ .

शहर की आबाद सड़कें अचानक रुक गई थीं लाल सिग्नल पर
बस, एक ट्रेन की सीटी तोड़ रही थी हवाओं के ट्रैफिक
पूरा शहर जलती रेल की धड़धड़ में थर्रा रहा था .

यदि नहीं डरे तो वे उड़ते हुए काले -काले कौए घनी रात के
यहाँ की जनता जिन्हें  देख रही थी आकाश में
पेड़ों पर उमड़ आई थी काले पंखों की भीड़
फड़फड़ाहट कुछ ऐसी बेचैन करने वाली  कि मैं सोच नहीं पा रही थी
कि ये किस वाद्ययंत्र की नाभिगत सिसकी थी जो बजा करती है ख़ास देश के नागरिक की मौत पर .
या फिर सिर्फ  कोई भयवाह शगुन की शुरुआत !

कौए हर दिशा में चिल्ला रहे थे
और दिशाएँ उन पर झपटना चाह रही थीं .

उनकी चोंच में दबे थे छोटे -छोटे चूज़े
जिनकी शक्ल मेरे अल्लाह से मिलती थी
वे छोटे-छोटे शावक नीलकंठी थे
जिनसे मुझे उनके महादेव होने का भ्रम हुआ .

मेरे शहर की कोमल त्वचा ने पहली बार जाना कि
बेतरह भट्टियों में कैसे झोंकी जा सकती है उसकी देह
और देह का जलना आत्मा के फफोलों से बाहर आना है
जिसके रिसाव की गंध
फूल की तरह खिला मेरा शहर आज तक नहीं भूल पाया है .

झड़ते हुए पराग का रंग फूल से भी अधिक लाल है
और मौसम बह रहा है हमारी दुखती रगों में .

कौए जा चुके हैं 
यातनाओं के साल ३६५ से ज्यादा हैं , महीने ३०-३१ से पूरे नहीं पड़ते
और सप्ताह तो बस एक दर्द की हिचकी है .

मेरी कमर पर उनके पंजों के निशान अकसर पथराव करते हैं
बहुत अकेली हो जाती हूँ मैं अपने शहर में रहते हुए .


अशोक वाजपेयी    

arv&Writer 


अशोक वाजपेयी जी हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं!  उनके परिचय के लिए शब्दकोष के सारे शब्द भी कम पड़ जायेंगे!  वे हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं!  उन्हें बहुत से कविता-संग्रह हैं जिनमें से प्रमुख हैं - शहर अब भी सम्भावना है, एक पतंग अनंत में, अगर इतने से, जो नहीं है, तत्पुरुष, कहीं नहीं वहीँ, घास में दुबका आकाश, तिनका तिनका, दुःख चिट्ठीरसा है, विविक्षा, कुछ रफू कुछ थिगड़े, फिलहाल, पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज  

 उन्हें दयावती मोदी कवि सिखर सम्मान और साहित्य अकादमी सम्मान द्वारा नवाजा जा चुका है! 


उनकी कुछ कवितायेँ इस प्रकार हैं: 


चींटी   

चीटियाँ इतिहास में नहीं होती :
उनकी कतारें उसके भूगोल के आरपार फैल जाती हैं;
किसी चींटी अपनी नन्हीं सी काया पर 
इतिहास की धूल पड़ने देती है । 

चींटियाँ सच की भी चिंता नहीं करतीं : 
सच भी अपने व्यास में 
रेंग रही चींटी को शामिल करना ज़रूरी नहीं समझता । 

चींटी का समय लंबा न होता होगा : 
जितना होता है उसमें वह उस समय से परेशान होती है 
इसका कोई ज्ञात प्रमाण नहीं है । 

इतिहास, सच और समय से परे और उनके द्वारा अलक्षित 
चींटी का जीवन फिर भी जीवन है :
जिजीविषा से भरा-पूरा, 
सिवाय इसके कि चींटी कभी नहीं गिड़गिड़ाती 
कि उसे कोई देखता नहीं, दर्ज नहीं करता 
या कि अपने में शामिल नहीं करता । 

कवि की मुश्किल यह नहीं कि वह चींटी क्यों नहीं है 
बल्कि यह कि शायद वह है, 
लेकिन न लोग उसे रहने देते हैं, 
न इतिहास, सच या समय । 


सड़क पर एक आदमी 


वह जा रहा है
सड़क पर
एक आदमी
अपनी जेब से निकालकर बीड़ी सुलगाता हुआ
धूप में–
इतिहास के अंधेरे
चिड़ियों के शोर
पेड़ों में बिखरे हरेपन से बेख़बर
वह आदमी ...

बिजली के तारों पर बैठे पक्षी
उसे देखते हैं या नहीं – कहना मुश्किल है
हालांकि हवा उसकी बीड़ी के धुएं को
उड़ाकर ले जा रही है जहां भी वह ले जा सकती है ....

वह आदमी
सड़क पर जा रहा है
अपनी ज़िंदगी का दुख–सुख लिए
और ऐसे जैसे कि उसके ऐसे जाने पर
किसी को फ़र्क नहीं पड़ता
और कोई नहीं देखता उसे
न देवता¸ न आकाश और न ही
संसार की चिंता करने वाले लोग

वह आदमी जा रहा है
जैसे शब्दकोष से
एक शब्द जा रहा है
लोप की ओर ....

और यह कविता न ही उसका जाना रोक सकती है
और न ही उसका इस तरह नामहीन
ओझल होना ......

कल जब शब्द नहीं होगा
और न ही यह आदमी
तब थोड़ी–सी जगह होगी
खाली–सी
पर अनदेखी
और एक और आदमी
उसे रौंदता हुआ चला जाएगा। 



लीना मल्होत्रा राव 






लीना मल्होत्रा राव दिल्ली में सरकारी नौकरी करती हैं! समकालीन कविता में उभरती हुई युवा कवयित्री हैं!  इनकी विभिन पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ प्रकाशित हुई है!   बोधि प्रकाशन द्वारा हाल ही में काव्य-संकलन  "मेरी  यात्रा का जरूरी सामान"  प्रकाशित हुआ है!  कुछ दिन पहले ही लीना जी को अचलेश्वर महादेव foundation  द्वारा युवा कवि के सम्मान से नवाजा गया है!  इनकी कवितायेँ लगभग सभी विषयों पर केन्द्रित हैं! 

लीना जी की कुछ कवितायेँ जो वे  डायलग में पढने वाली हैं:


ऊब के नीले पहाड़


कितना कुछ है मेरे और तुम्हारे बीच इस ऊब के अलावा
यह ठीक है तुम्हारे छूने से अब मुझे कोई सिहरन नही होती 
और एक पलंग पर साथ लेटे हुए भी हम अक्सर एक दूसरे के साथ नही होते 
मै चाहती हूँ कि तुम चले जाया करो अपने लम्बे लम्बे टूरों पर 
तुम्हारा जाना मुझे मेरे और करीब ले आता है 
तुम्हारे लौटने पर मैंने संवरना  भी छोड़ दिया है
तुम्हारी निगाहों से नही देखती अब मै खुद को 
यह कितनी अजीब बात है कि ये धीरे धीरे मरता हुआ रिश्ता 
कब पूरी तरह मर जाएगा इसका अहसास भी नही होगा हमें 
लेकिन फिर भी 
तुम्हारी अनुपस्थिति में जब किसी की बीमारी कि खबर आती है 
तो मुझे तुम्हारे सुन्न पड़ते पैरों कि चिंता होने लगती है

कोई नया पल जब मेरी जिंदगी में प्रस्फुटित होता है 
तो बहुत दूर से ही पुकार के मै तुम्हे बताना चाहती हूँ 
कि आज कुछ ऐसा हुआ है कि मुझे तुम्हारा यहाँ न होना खल रहा है 
कि तुम ही हो जिससे बात करते वक्त मैं  नही सोचती की यह बात मुझे कहनी चाहिए या नहीं.

और  जब मुझे ज्वर हो आता है 
तुम्हारा हर मिनट  फ़ोन की  घंटी बजाना और मेरा हाल पूछना 
शायद वह ज्वर तुम्हारा ध्यान खींचने का बहाना ही होता था शुरू में 
लेकिन अब  
इसकी  मुझे आदत हो गई है
और मै दूंढ ही नही पाती 
वो दवा 
जो तुम रात के दो बजे भी घर के किसी कोने से ढूढ़ के ले आते हो मेरे लिए

और सिर्फ तुम ही जानते हो इस पूरी दुनिया में 
कि सर्दियों में मेरे पैर सुबह तक ठंडे ही रहते हैं 
कि मुझे बहुत गर्म चाय ही बहुत पसंद है
कि आइस क्रीम खाने के बाद मै खुद को इतनी कैलरीज खाने के लिए कोसूँगी  ज़रूर
कि तुम्हारे  ड्राईविंग करते हुए फ़ोन करने से मैं कितना चिढ जाती हूँ 
कि जब तुम कहते हो बस अब मै मर रहा हूँ 
तो मै रूआंसी नही होती
उल्टा  कहती हूँ तुमसे 
५० लाख कि इंशोरेंस करवा लो ताकि मैं बाकी जिंदगी आराम से गुज़ार सकूँ
और फिर कितना हँसते हैं हम दोनों 
इस तरह मौत से भी नही डरता ये हमारा रिश्ता 
तो फिर  ऊब से क्या डरेगा ??

ये हमारे बीच का कम्फर्ट  लेवल  है न
यह  उस ऊब के बाद ही पैदा होता है
क्योंकि 
किसी को बहुत समझ लेना भी जानलेवा होता है प्रिय 
कितनी ही बाते हम इसलिए नही कर पाते कि हम जानते होते हैं 
कि क्या कहोगे तुम इस बात पर 
और कैसे पटकुंगी  मैं बर्तन जो तुम्हारा बी पी बढ़ा देगा 
और इस तरह 
ख़ामोशी के पहाड़ों को नीला रंगते हुए ही दिन बीत जाता है. 
और उस पहाड़ का नुकीला शिखर हमारी नजरो की छुरियों से डरकर भुरभुराता रहता है 


और जब तुम नही होते शहर में 
मैं कभी सुबह की चाय नही पीती 
और अखबार भी यूँ ही तह लगाया  पड़ा रहता है
खाना भी एक टाईम ही बनाती हूँ 
और 
और वह नीला रंगा पहाड़ धूसरित रंग में बदल जाता है
फोन पर चित्र नही दिखते इसलिए जब शब्द आवश्यक हो जाते हैं 
और तुम
पूछते हो क्या कर रही हो  
मैं कहती हूँ
बॉय फ्रेंड की हंटिंग  के लिए जा रही हूँ 
और
तुम शुभकामनाये देते हो
और कहते हो की इस बार कोई अमीर आदमी ही ढूँढना 

ये डार्क ह्यूमर हमारे रिश्ते को कितनी शिद्दत से बचाए रखता है
और इस ऊब में उबल उबल कर कितना गाढ़ा हो गया है ये हमारा रिश्ता

मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान 

आज  मैं एक लम्बी नींद से उठी ूँ
और मुझे ये दिन ही नही ये जिंदगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नही देखना चाहती
सोचना भी नही चाहती कि मैंने अपनी जिंदगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी ोरी चुस्की भर पिया
और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मै
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमे वह
जब चाहे अपनी इच्छाएं और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मै उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती 
जहाँ से उतर कर वह यूँ विदा हो जाता जैसे कोई मुसाफिर चला जाता है.

मैं रात रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई जहाज़ो को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों  उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती कि ुआएं मांग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद यात्रा के कई स्पर्श  और चुपके से लिए हुए चुम्बन
 उन जहाजों से  मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए  मेरे बिस्तर तक  जाते
इस तरह मेरी  चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फेड हो जाते
तब  माचिस की डिबिया की सारी  ियासिलाइयां सीलन से भर उठती
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने 
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामा है 



मनोज कुमार सिंह
















सीवान बिहार में जन्म! हिंदी साहित्य में पी.एच-डी, डेल्ही विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में प्रोफ़ेसर! "भक्ति आन्दोलन और हिंदी आलोचना" पुस्तक प्रकाशित! हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित!  दिल्ली से प्रकाशित हिन्दी त्रौमासिक पत्रिका ‘अनभै साँचा’ में कुछ वर्षों से संपादन-सहयोग।  मनोज जी 'डायलाग' से सक्रिय रूप से जुड़े हैं!  इनकी कवितायेँ सामाजिक  कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करती हैं!  
आईये पढ़ते हैं मनोज जी की कुछ  कवितायेँ:


जनता का आदमी

वह सोचता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह लिखता था
और
जनता को ढूढ़ता था।
वह जनता को
............... समझता था।

जब उसे पता चला
जनता उसे ............... समझती थी।
वह विद्रोही हो गया।

अब वह
जनता के
जिस हिस्से से
टकराता था
उसे ही खाता था।

देखते ही देखते
जनता का आदमी
आदमखोर हो गया।

लोगों ने पंचायत बुलाई-
जनता के आदमी से
निपटने के लिए मशालें जलाईं

और
रात के अंध्ेरे में
जनता का आदमी
जनता के हाथों मारा गया।

.........................


‘‘पद्मिनी नायिकाएँ’’

मेधवी
ढूढ़ रहे हैं
पद्मिनी नायिकाएँ
‘कुंदनवर्णी’!

रख रहे हैं
ख्याल
कुल-गोत्र का
हो रहे हैं-
विश्व-मानव!

उम्र के ठहराव पर
प्राप्त कर रहे हैं
अज्ञात यौवनाएँ।

‘‘ज्ञान में
समतुल्य
बेजुबान सहचर चाहिए’’
का दे रहे हैं-
विज्ञापन।

रच रहे हैं
विधन
ज्ञान का,
वैदिक रीति से प्राप्त कर रहे हैं
‘कन्या’
दान का!

पूरे इन्तजाम पर ला रहे हैं
विवाहिताएँ
उछलती-कूदती पसंद
के आधर पर लाई गईं
हो गईं-
‘कुलवंती’ ‘ध्ीरा’।

मर खप रही हैं
पुत्रा हेतु।
विज्ञान के सबसे क्रूर यंत्रा से गुजर रही हैं-
पद्मिनी नायिकाएँ।

पुत्रा की शिनाख़्त पर
बढ़ गयी है सेवा।
पति कूट रहे हैं
लवंग सुपारी का पान
ज़माने-भर का अपमान
चुकाने का बन गयीं हैं स्थान,
पद्मिनी नायिकाएँ।

रात-रात
दिन-दिन
जग रही हैं
कर रही हैं- सेवा
सापफ कर रही हैं
मल-मूत्रा
खा रही है मेवा
पद्मिनी नायिकाएँ।

और
इस तरह
जन रहीं हैं
भावी ‘मेध’
पद्मिनी नायिकाएँ।
...............

मिथिलेश श्रीवास्तव 

IMG_4698.jpg 



मिथिलेश श्रीवास्तव बिहार के गोपालगंज जिले के हरपुरटेंगराही गाँव में जन्मे| भौतिकी स्नातक तक की पढाई बिहार के साइंस कॉलेज पटना में हुई| नौकरी की तलाश में दिल्ली आना हुआ तब से दिल्ली में ही प्रवास| स्कूल के दिनों से ही कविता की ओर प्रवृत हो गए| कविता लिखने के साथ साथ समकालीन रंगमंच और चित्रकला और समसामयिक सामाजिक विषयों पर निरंतर लेखन | 
पहला कविता संग्रह 'किसी उम्मीद की तरह' पंचकुला स्थित आधार प्रकाशन से छपा| दिल्ली राज्य की हिंदी अकादेमी द्वारा युवा कविता सम्मान से पुरस्कृत| दिल्ली विश्वविधालय के सत्यवती कॉलेज की साहित्य सभा उत्कर्ष के 'कविता मित्र सम्मान, २०११' से सम्मानित| 'सार्क लेखक सम्मान, २०१२' से सम्मानित | लिखावट नाम की संस्था के माध्यम से लोगों के बीच कविता के प्रचार- प्रसार का 'घर घर कविता', 'कैम्पस में कविता',
प्रसंग' सरीखे कार्यक्रमों का आयोजन| दिल्ली की अकादेमी आफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटीरेचर के कविता के 'डायलग' कर्यक्रम का संयोजक| सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में २००३ में हुए हिंदी भाषा 'कविता-सम्मलेन में कविता-पाठ| काठमांडू में बी पी कोइराला फाउनदेसन और नेपाल में भारतीय दूतावास की ओर से आयोजित भारत-नेपाल साहित्यिक आयोजन में काठमांडू में कविता-पाठ| हिंदुस्तान (हिंदी) दैनिक अख़बार में कला समीक्षक और जनसत्ता दैनिक अख़बार में रंगमंच समीक्षक के रूप में कार्य|




मिथिलेश जी की कुछ कवितायेँ जो वे  डायलग  में प्रस्तुत करने वाले हैं :




हम में से हर एक का एक स्थायी पता है


लोग कहते हैं मैं जहाँ रहता नहीं हूँ
जहाँ मेरी चिठियाँ आती नहीं हैं
दादा या पिता के नाम से जहाँ मुझे जानते हैं लोग
अपना ही घर ढूढ़ने के लिए जहाँ लेनी पड़ती है मदद दूसरों की
पुश्तैनी जायदाद बेचने की गरज से ही जहाँ जाना हो पाता है
पिता को दो गज जमीं दिल्ली के बिजली शव दाह-गृह में मिली थी
वह पता मेरा स्थायी पता कैसे हो सकता है

लेकिन हम में से हर एक का एक स्थायी पता है
जहाँ से हम उजड़े थे

एक वर्तमान पता है जहाँ रहकर स्थायी पते को याद करते है
स्थायी पते की तलाश में बदलते रहते हैं वर्तमान पते
इस तरह स्थायी पते का अहसास कहीं गुम हो जाता है
एक दिन मुझे लिखना पड़ा कि मेरा वर्तमान पता ही स्थायी पता है
पुलिस इस बात से सहमत नहीं हुई
वर्तमान पता बदल जाने पर वह मुझे कहाँ खोजेगी
हम अब घोर वर्तमान में जी रहे हैं

तुम से क्या छिपाना तुम कभी लौटो
वर्तमान पतों की इन्ही कड़ियों में मेरे कहीं होने का सुराग मिलेगा
तुम भी कहती थीं जहाँ तुम हो वही मेरा स्थायी पता है

मालूम नहीं तुम किस रोशनी पर सवार हो        किस अँधेरे में गुम

लोकतांत्रिक देशों की पुलिस
वर्तमान पते पर रहनेवाले लोगों से स्थायी पते मांगती है
जिसका कोई पता नहीं पुलिस उसे संदिग्ध मानती है

बच्चे से पुलिस उसका पता पूछती है
बच्चा तो अपनी मां की गोद में छुप जाता है
वही उसका स्थायी पता है     वर्तमान पता है.



मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था




मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही 


एक मैले कुचैले कम्बल के भीतर दुबक जाने की हिदायत मिल जाती 


पागलों को आपस में बात बहस करने की मनाही होती 


कोई पागल बुदबुदाने की हिम्मत नहीं कर सकता था 


अपनी तकलीफों का तरतीब बयान नहीं कर सकता था 


एक औरत जो नर्स के रूप में हमारी तीमारदारी करती


बराबर कड़क आवाज में गरजती 


जैसे खामोसी फिल्म से प्रभावित थी


कहने का अंदाज लोरी सुनाने जैसा बिलकुल नहीं होता 


वह सिर्फ धमकाया करती 


बुदबुदाना नहीं वरना पुलिस बुला लेगी 




मैं भाग निकला क्योंकि मेरे घरवाले मुझे छोड़कर शाम को चले जाते 


मेरे घरवाले एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आने लगते 


मेरे घरवाले कई कई दिनों तक नहीं आते 




मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही 


मुझे अपने प्रेम के किस्से सुनाने का दिल करने लगता 


मैं भाग आया घर


मुझे केवल घर का रास्ता मालूम था 




मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था|








सीमा तोमर 




DSCF4109.JPG 

युवा प्रतिभा सीमा पेशे से एक आर्ट टीचर है!  बहु- आयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी सीमा न केवल अच्छी चित्रकार हैं अपितु संवेदनशील कवयित्री भीं हैं ! कई प्रदर्शनियों  में शिरकत  कर चुकी हैं,  फेसबुक पर सक्रिय हैं,  डायलग में श्रोता के रूप में तो नियमित आती हैं  और यहाँ  पहली बार कविता पाठ कर रही हैं!  

आईये पढ़ते हैं सीमा जी की कुछ कवितायेँ :


गाँव की आत्मकथा  




मेरी पगडंडी को


चौड़ा करता एक रास्ता


जो जाता है शहर की ओर


जिसका एक सिरा मुझसे जुड़ा ज़रूर है


पर ओझल है दूसरा छोर


मेरे कुटुम्ब की जवान पीढ़ी


यहीं इसी रास्ते से गई थी


रोटी की तलाश में


और एक बूढ़ा वर्ग रह गया यहाँ


कुछ वक़्त के दानें संजोए


जो उनके इंतजार में


धूप और सर्दी में


गला रहा हैं अपनी हड्डियाँ


शायद भूल बैठा है


नहीं लौटा करती घटते क्रम में


बढ़ते क्रम की पीढ़ियाँ


समय से तेज भागते


शहर के शोर में


इस कुटुम्ब को नहीं सुनती


उन बूढ़ी होती आशाओं की आवाज़


दो तीन महीने में मनीऑर्डर


करती है ये पीढ़ी


इस तरह कर्तव्य से मुक्ति पाती है


पर नहीं सोचती ज़रा भी


वो बूढ़ी आँखे रोज दूसरा छोर


ढूँढती हैं थकती हैं और सो जाती हैं


चीरता


अपने सीने पर वो पगडंडी


वापस मोड़ लेता


शहर को जाती मेरी पीढ़ी


अब मैं हल्का हो रहा हूँ


धूल बन कर पहुँच रहा हूँ


वहीं ढूँढने दूसरा छोर


हरे से पीला पड़ चुका हूँ


बूढ़े वर्ग की तरह मैं भी


बंजर बन चुका हूँ


मैं भी कब तक जिंदा रहूँगा


मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ


लौट आओ जवानों


मेरी अंत्येष्टि तुम्हे ही करनी है


मुझे चीर तुम्हे शॉपिंग मॉल


की रचना करनी है


सुनो पर जब कोई तुमसे पूछेगा


तुम्हारे गाँव का नाम


तो तुम क्या कहोगे


जानता हूँ मेरे नाम के आगे


स्वर्गवासी लगा दोगे.......



''पिताजी उठो ना''



तुम्हारे चेहरे पर


न देखा था


ममता का कोमल स्राव


क्योंकि अभी मेरी आँखें


देख रही थीं


सिर्फ़ तुम्हारे गर्भ की गोलाई


संभवतः पृथ्वी भी ऐसी ही गोल दिखती हो


अभी न सूँघा था कोई भी फूल


''


संभवतः गुलाब भी इतना नहीं महकता हो


जब खोई थी मैं अपने इस छोटे से संसार में


अचानक सुनी एक क्रोधित ध्वनि


जिसने तुम्हारे मन को कंपित कर दिया


तुम्हारी पीड़ा मुझ तक पंहुच रही थी


तुम यह चाहती थी कि न आऊँ


मैं बेटी बनकर


मैं बेटा बनकर


पर यह संभव न था


प्रकृति का यह नियम न था


बेटी के रूप में ही आ चुका था


उसी की ही वो क्रोधित ध्वनि थी

हाँ पिता नहीं चाहते थे कि मैं आऊँ

पूछ के बताओ पिता से ज़रा

कि क्या दोष है मेरा

क्या अपनी बचपन की अठखेलियों से

मैं उन्हे नहीं हसाउंगी

क्या पिताजी कह कर उनसे

पवित्र रिश्ता नहीं बनाउंगी

क्या जब वो थक कर आएँगे

उन्हे पानी का गिलास नहीं दूँगी

क्या उनके शिकन से घिरे माथे को

क्या जब तुम अनुपस्थित होगी मेरे पिता के घर से

तो क्या उन्हे प्यार में गूँथे

क्या नहीं बिछाउंगी तुम्हारी अनुपस्थिति में

करूणित स्वर में ''पिताजी उठो ना''

,

कि यह सब मैं नहीं करूँगी

और तुम्हे भी मुझसे कोई उम्मीद न हो

मेरे कानों में

चली जाउंगी मैं फिर दुबारा कभी न लौटूँगी

पर माँ मुझे तुम्हारी चिंता रहेगी

कि अगर मेरी बहन आई तो

वो तुम्हे छोड़ कर न जा सकी तो

तो क्या पिता उसे भी ऐसे ही लौटा देंगे

तुम कहो न माँ पिता से

कि मेरे लिए न सही

पर मेरी बहन के आने तक

अपने घर में थोड़ा सा स्थान बना लें



सुधा उपाध्याय 



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सुल्तानपुर (उ.प्र.) में जन्मी डॉ सुधा उपाध्याय गद्य और पद्य दोनों विधाओं में स्वतंत्र लेखन करती रही हैं। समसामयिक अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कई आलेख, कहानी, कविताएं प्रकाशित और पुरस्कृत। विश्वविद्यालय स्तर पर कई पुरस्कार भी अर्जित किए हैं। अध्ययन-अध्यापन के अलावा अनेक गोष्ठियों, परिचर्चाओं और वाद-विवाद में सक्रिय भागीदारी रही है। ‘बोलती चुप्पी’ (राधाकृष्ण
प्रकाशन) कविताओं का संकलन बेहद चर्चित रहा है। समकालीन हिंदी साहित्य, साक्षात्कार, कथाक्रम, आलोचना, इंद्रप्रस्थ भारती, सामयिक मीमांसा आदि पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में हिंदी विभाग की वरिष्ठ व्याख्याता के रुप में कार्यरत हैं। हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी की चर्चित कवियित्रियां’ नामक कविता संकलन में कविताएं प्रकाशित हुई हैं।




सुधाजी की कुछ नयी कवितायेँ :



आप चाहें तो इसे





कहीं से भी शुरू करें


पर सच यह है कि


न तो इसकी गंभीरता


न इसके शाश्वत होने पर


कोई फ़र्क पड़ता है।


तो सच ये है कि


सबसे कठिन है


सच बोलना और


उससे भी ज्यादा कठिन है


सच पर यक़ीन करना।


सबसे आसान है


सच की हत्या


उससे भी आसान है


हत्या के बाद उसपर


सबसे बड़े झूठ का ठप्पा ठोकना।


सहाय का ‘दो अर्थ का भय’


1


छूट चुका है काफी पीछे


अब तो भय नहीं खौफ है


अपनों से, साथ बैठने वालों से, हमदर्दी जताने वालों से


और सबसे ज्यादा अपने आप से।


बात इतनी सी है कि


सच के दुरदुराए जाने से


झूठ को न अपनाने से


चुकने लगी हूं


और ढूंढने लगी हूं


सच का एक ऐसा यंत्र


जो बचा सके


आने वाली पीढ़ी को।


अब जबकि


(2)


हर बात के निकाले जाते हैं


कई मायने


हर बात के पीछे मंशा


2


और आगे जोड़ा जाता है स्वार्थ


ऐसे में कठिन है


कही गई बात का


वैसे ही स्वीकृत होना,


हालात के साथ


आदमी बने रहना,


और सच के तमाम प्रयोगों पर


लंबी दूरी तक चल पाना।


एक समय ऐसा आएगा


मेरे बच्चे ही


गलत को सही समझना


समय की ज़रूरत बताएंगे।


एक ही सपना


(3)


अकसर देखती हूं


खड़ी हूं बहुत ऊंचाई पर


लेकिन जैसे ही नज़र पड़ती है नीचे


3


घबरा जाती हूं।


मैं खड़ी हूं


सिर्फ उतनी ज़मीन पर


जितने पर मेरे दोनों पैर।


ऐसा कब हुआ


इतनी गहरी अंतहीन खाई के बीचोबीच


कैसे और कहां से आ गई मैं


मुझे तो हमेशा


ऊंचाई से डर लगता था।


समेट रही हूं


(1)


लंबे अरसे से


उन बड़ी-बड़ी बातों को


जिन्हें मेरे आत्मीयजनों


ठुकरा दिया छोटा कहकर।


डाल रही हूं गुल्लक में


इसी उम्मीद से


4


क्या पता एक दिन


यही छोटी-छोटी बातें


बड़ा साथ दे जाए


गाहे बगाहे चोरी चुपके


उन्हें खनखनाकर तसल्ली कर लेती हूं कि


जब कोई नहीं होगा आसपास


तब यही चिल्लर काम आएंगे।






सुमन केशरी




Madam Suman 1.JPG




सुमन केशरी जी सुप्रसिद्ध कवयित्री, कथाकार हैं!  इनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है!  वे जे एन यू से पी.एच.डी हैं और यूनिवेर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया, पर्थ  से प्रबंधन में स्नाकोत्तर कर चुकी हैं! कई प्रमुख संस्थाओं में वे प्रबंधन, प्रशासन आदि विषयों पर संबोधित कर चुकी हैं जैसे Administrative  Staff  College  of  India    (ASCI ), हैदराबाद, इंडियन इनस्ट. ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (IIPA ), नयी दिल्ली और बी एच यू , वाराणसी आदि! वर्तमान में वे डिपार्टमेंट ऑफ़ साईंस एंड टेक्नोलोजी, भारत सरकार में डायरेक्टर के पद पर कार्यरत हैं! 
चर्चित काव्य संकलन "याज्ञवल्क्य से बहस" २००८ में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित!  विभिन्न हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कहानियां प्रकाशित!  राजकमल प्रकाशन द्वारा २००९ में प्रकाशित पुस्तक "जी एन यू में नामवर सिंह" का संपादन!  हाल ही में उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की कक्षाओं के लिए पाठ्य-पुस्तकों की एक श्रृंखला "सरगम" और "स्वरा " का संपादन भी किया है! प्रमुख शैक्षणिक एवं साहित्यिक पात्र-पत्रिकाओं में शोध पत्र और आलेख प्रकाशित !  इनकी कविताओं का नेपाली और मलयालम भाषाओँ में अनुवाद भी हुआ है!    


सुमन जी की कुछ सरस  कवितायेँ :


सुनो बिटिया……..

सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम देखना
खिलखिलाती
ताली बजाती
उस उजास को
जिसमें
चिड़िया के पर
सतरंगी हो जायेंगे
ठीक कहानियों की दुनिया की तरह

तुम सुनती रहना कहानी
देखना
चिड़िया का उड़ना आकाश में
हाथों को हवा में फैलाना सीखना
और पंजों को उचकाना

इसी तरह तुम देखा करना
इक चिड़िया का बनना

सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ
खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम आना…..


कहानियों की दुनिया में लड़की  


कहानियों की दुनिया कितनी अच्छी होती है माँ 
 इन कहानियों में
 राजा हैं, रानियाँ हैं
 राक्षस हैं, शैतान हैं
 चतुर और खुराफ़ाती मंत्री हैं
 देवता हैं, असुर हैं
 अन्धी बुढि़या और कोख बंधानेवाली   बहू है
 और तो और माँ 
 इन कहानियों में बोलने-सुननेवाले ज्ञानी पशु-पक्षी भी हैं
 कैसी अच्छी दुनिया होती है माँ 
 इन कथा-कहानियों की दुनिया

कहानियों में कई-कई बरस
 पलभर में बीत जाते हैं
 दुःख होता है जो सालता नहीं
 तीरें-तलवारें चलती हैं
 पर चोटों में दर्द नहीं होता
 तुम कहती-कहती सो जातीं
 हम सुनते-सुनते सो जाते
 कभी नींद खलल नहीं पड़ती है
 कैसी अच्छी ये कहानी है
 कैसी अच्छी ये दुनिया है

 दुःख आते हैं राजा के घर
 रानी भगा दी जाती है
 कुंवर-कुंवरी का लालन-पालन
 जंगल के हवाले होता है
 जंगल में पलने-बढ़नेवाले
 सिंहों की सवारी करते हैं
 अश्वमेघ की सेना से
 हठबल के सहारे भिड़ते हैं
 रानी के तब भाग हैं जगते
 महलों में बुलाई जाती है
 राजा-रानी के जय जय की
 हुंकार लगाई जाती है ।
 अन्धी बुढि़या को गणपति की
 अनुकम्पा हासिल होती है
 नाती-पोतों, धन-दौलत से
 उसकी दुनिया भी बदलती है ।

 अम्मा
 दुष्टों का दलन हुआ करता
 अच्छों के भाग ही खुलते हैं
 कहानी में दिन जल्दी फिरते
 रोनेवाले सब हँसते हैं
 पर माँ 
 ऐसा क्यों होता है कि
 कहानी में भी औरत रोती है
 वन को जाती और कोख बंधाती
 दिन बीतने को वो तरसती है
 यह बात मुझे कुछ खलती है
 तुम कुछ तो कहो अम्मा मेरी
 कोई ऐसी कथा सुनाओ आज
 जिसमें हो जीत तेरी-मेरी

पर देखो तुम तो लगीं रोने
 अब ऐसा क्या कहा मैंने
 कोई नई कथा सुनाओ तुम
 बस इतनी मांग रखी मैंने

अब बैठो तुम बिटिया बनके
 और कथा कहूँ मैं कुछ तन के
 अम्मा दिन फिरते हैं सबके
 यह बात तुम्हीं तो कहती हो 




वंदना शर्मा           


  DSC02868.JPG


वंदना शर्मा एम फिल, पी एच डी हैं! वे चौधरी चरण सिंह विश्व विद्यालय, मोदी नगर, गाजियाबाद में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं!  


समकालीन स्त्री कविता में बयान की तीव्रता.अनुभूति की गहराई, भाषा की प्रखरता और शिल्प की सुघड़ता के साथ बेलौस निर्भीक ललकारती चौंकाती मुख्य स्त्री स्वर हैं जो पूरे दौर में चुनौती देती सी डटी खड़ी है ..उनके कवितायें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं ! 



आईये पढ़ते हैं वंदना जी की कुछ जोशीली कवितायेँ :




हम हैं संक्रमण काल की औरतें



साबुत न बचने की हद तक... 

साबित करती रहेंगी हम कि हे दंडाधिकारियो.. 

गलत नही थे हमें ज़िंदा बख्श दिए जाने के तुम्हारे फैसले 


हमने किये विवाह तो साबित हो गये सौदे 

हमने किये प्रेम तो कहलाये बदचलन.. 

हमने किये विद्रोह तो घोषित कर दिए गये बेलगाम 


छाँटे गये थे हम मंडी में ताज़ी सब्जियों की तरह 

दुलराये गये थे कुर्बानी के बकरे से.. 

विदा किये गये थे सरायघरों के लिए.. 

जहां राशन की तरह मिलते थे मालिकाना हक 



आंके गये थे मासिक तनख्वाओं,सही वक्त पर जमा हुए बिलों,स्कूल के रिपोर्ट कार्डों,

घर भर की फेंग शुई और शाइनिंग फेमिली के स्लोगन से..

और इस चमकाने में ही बुझ गईं थीं हमारी उम्रें 

चुक गईं सपनो से अंजी जवान आँखें..



हमसे उम्मीदों की फेहरिश्त उतनी ही लम्बी है 

जितनी लम्बी थी दहेज़ की लिस्ट.. 

शरीर की नाप तोल,रंग,रसोई,डिग्रियां और ड्राइंगरूम से तोले गये थे हम 



क्लब में जाएँ तो चुने जाने की सबसे शानदार वजहें सी लगें 

रसोई में हों तो भुला दें तरला दलाल की यादें..

इतनी उबाऊ भी न हो जाएँ कि हमारी जगहों पर आ जाएँ मल्लिकाएं 



सीता सावित्री विद्योत्तमा और रम्भा ही नही 

हम में स्थापित कर दी गईं हैं अहिल्याएँ....

लक्ष्मण रेखा के दोनों और कस दिए गये हमारे पाँव 

हमारे पुरुष निकल चुके हैं विजय यात्राओं पर..



हमने कहा, सहमत नही हैं हम 

हमारे रास्ते भर दिए गये आग के दरिया,खारे पानी के समुन्दरों और कीचड़ के पोखरों से 

नासूर हैं हमारे विद्रोह , लड़ रहे हैं हम गोरिल्ला युद्ध 

खत्म हो रहे हैं आत्मघाती दस्तों से ..



हमारी बच्चियों 

हमारी मुस्कुराहटों के पीछे..

कहाँ देख पाओगी हमारे लहूलुहान पैरों के निशान

हमारे शयनकक्षों में सूख चुके होंगे बेआवाज बहाए गये आंसुओं से तर तकिये 

सीनों में खत्म हुए इंकार भी,अच्छा हो कि दफ्न हो जाएँ हमारे ही साथ..



हमारी कोशिश है कि खोल ही जाएँ 

तुम्हारे लिए, कम से कम वह एक दरवाजा 

जिस पर लिखा तो है 'क्षमया धरित्री'

किन्तु दबे पाँव दबोचती है धीमे जहर सी 

गुमनाम मौतें... 


इसलिए,जब भी तुम कहोगी हमसे 'विदा' 

तुम्हारे साथ ही कर देंगे हल्दी सने हाथों वाले तमाम दरवाजे 

ताकि आ सको वापस उन्ही में से ..

खुली आँखों से खाई,कई कई चोटों के साथ !!




 अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं 


आज फिर बहुत बुरा हुआ है 
बाँचने को मिल चुके हैं गरुड़ पुराण 
और अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं 
अपने अपने मोर्चों से बाहर..
हम हैं जगाये गए कुम्भकरण !

हमारी जेबों में रख दिए गए हैं नक़्शे चश्मे दूरबीन इंचटेप और पैमाने 
हमारी आँखों पर बाँध दी गयी हैं मनमाफिक रंगों वालीं पट्टियां 
हमारे जहन में लहराने लगे हैं गढ़े हुए झंडे 
जिनके इर्द गिर्द लिपटी हैं..
मृगतृष्णाओं  की बहुरंगी झालरें !

बहुत सख्त बंद कर दिए गए हैं कान 
ढांप दिए गए हैं तमाम रोशनदान 
हमें नहीं, देखना भी नही है उन मरुथली रास्तों की ओर
जिनके अंत में हों कोई छोटा मोटा नखलिस्तान 
या वह भी न हो ..
हों, केवल मीलों फैले रेत के भवँर टीले 
और प्रतीक्षा में हो आखिरी छोर पर बस जन्मांत बेचैन प्यास !

ठंडी अँधेरे भरी माँदों से बाहर आ गए हैं हम
हमारे हाथ भरे हैं पथरीले शब्दों से..
जिन्हें दागना है तय निशानों पर...
हमें जमाना है  की मालिक ki उखड़ती सांसों और अस्थिर पैरों को 
धुंधलाई द्रष्टि भी नही डालनी उजडती झौंपडीयों जैसी असलियतों और टीसती जड़ों की ओर !

हमारे कन्धों पर कस दिए गए हैं तूणीर..
जिनमें लहुलुहान ठंसे हैं अम्बेडकर गाँधी या भगत सिंह 
यहाँ तक कि अल्लाह या श्री राम भी तुरुप के इक्के से 
दबाएँ हैं कांख में .. 
शह मात के आखिरी दौर के ब्रह्मास्त्र !

फैले हुए उस रक्त के बींचोंबीच 
सज गये हैं युद्ध के मैदान 
हम खींचते हैं पैने नुकीले तारों वाले बाड़े 
बिछाते हैं नीतियों की चटाईयां कालीन !

हम में से कुछ की शक्ल किलों तक पहुँचने वाली सीढियों से
मिलतीं हैं 

कुछ की भाड़े के सिपाहियों और चौकीदारों से 
कुछ की पायदानों और कन्धों से.. 
यहाँ तक कि रुमालों और तौलियों से भी !

ओढ़ लेते हैं काले सफ़ेद मातमी लिबास
मुहं से झरते हैं अविरल झाग .. 
जोर जोर से पढ़ते हैं हाथों में थमाए गए मर्सिये 
जिनके सुर मिलते हैं ..
जंगी नारों और सलीबों पर टँगी हुई चीखों पर हँसते ठहाकों से 
और टूटी हुई उम्मीदों के चटकने की आवाज से !

खुली आँखों से रखते हैं दो मिनट के प्रायोजित मौन 
चिल्ला चिल्ला कर गातें हैं रटे हुए शोकगीत..

ठीक उसी समय बदल जाती हैं 
हमारी शक्लें ..
लाशों पर लड़ते हुए भयानक गिद्ध समूहों में..
गर्वित सहलाते हैं अपनी खुरचें ..
जैसे लौटते हों गली के शेर..
नींद में ऊँघते..
अगले संकेतों की प्रतीक्षा में !!!




तो आप सभी इस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित है!  





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